रविवार, 17 मई 2009
कहा जाता है कि अगर किसी पार्टी को दिल्ली के तख्त तक पहुंचना है तो उसे लखनउ का रास्ता तय करके ही जाना पडेगा....संसद में सबसे ज्यादा सांसद पहुंचाने वाला उत्तर प्रदेश हमेशा से ही चर्चा में रहा है ...अभी ज्यादा दिन नही हुए जब मायावती ने ये नारा दिया था कि चढ गुंडन की छाती पर मोहर लगेगी हाथी पर ...... शायद मायावती इस नारे से जनता को बताना चाहती थी कि उनकी पार्टी न तो गुडों को आश्रय देगी औऱ न ही राजनीति का अपराधीकरण करने का समर्थन करेगी ........लेकिन शायद राजनीति में पाला और जबान बदलते देर नही लगती है ....... और इसकी झलक एक बार फिर से पंद्रहंवी लोकसभा चुनाव में दिखी.......इस चुनाव में मायावती ने उन्ही खूंखार अपराधियों को टिकट दी जिन्हे कभी मायावती पानी पी पी कर गालियां दिया करती थी फिर चाहे वो मुख्तार अंसारी या फिर अफजल अंसारी अथवा धनजंय सिंह हो......राजनीति की चौखट उस वेश्या की चारपाई की तरह है जिस पर कभी भी कोई भी आकर हमबिस्तर हो सकता है ......
शनिवार, 16 मई 2009
आखिर खत्म हुआ इंतजार औऱ निकला इवीएम पिटारे से वो राज जिसे जानने के लिए सब थे बेकरार वो जनता हो या फिर उम्मीदवार, जनता ने दिया मनमोहन सिंह को फिर से एक बार देश को चलाने का मौका हालांकि इस बात की इतनी उम्मीद नही की जा रही थी कि यूपीए सरकार को सरकार बनाने के लिए उसे इतनी सींटे मिल जाएगी लेकिन जनता तो जनता है उसका क्या निर्णय होगा ये किसी को पता नही होता हां चैनल विश्लेषक और जानकार सभी अनुमान जरुर लगाते है लेकिन जनता का क्या निर्णय होगा अब वो इसे भांपने में नाकाम हो रहे है ....पिछली बार भी मीडिया और जानकारों विश्लेषकों ने भाजपा को सरकार बनाने के नजदीक पहुंचने की भविष्यवाणी की थी लेकिन न तो एनडीए को उसका शाईनिंग इंडिया जीत दिला पाया और न ही अटल का जादू एनडीए को विजेता बना पाया, इस बार भी अनुमान यूपीए और एनडीए को मीडिया ने दो सौ के भीतर ही सीमित रखा था साथ ही दोनों के बीच विशेष अंतर नही समझा जा रहा था लेकिन जब नतीजे आए तो सब कुछ अप्रत्याशित था ,माकपा बदहाल हो चुका था लालू की लालटेन गुल हो गई रामविलास की लुटिया डूब गई ,और आडवाणी के हाथों की लकीरों से राजसत्ता का योग गायब हो चुका था ,....वहीं मनमोहन सिंह पांच साल तक कमजोर प्रधानमंत्री का दर्द सहकर एक बार फिर से मुस्कराने की भूमिका में है....राजनीतिक पार्टियां भले ही पानी पीपीकर उन्हे पांच साल तक इस बात के लिए कोसती रही हो कि वो सोनिया के हाथ के कठपुतली है लेकिन जनता को शायद राजनीतिक पार्टियों की ये बातें प्रतिद्दिता का परिणाम ज्यादा लगी और हकीकत कम ,शायद यही कारण है कि जनता ने इस बार मनमोहन सिंह को सरकार बनाने के लिए एक ऐसा आंकडा दे दिया है जिसके बाद अब मनमोहन सिंह को माकपा के मुंह की तरफ निहारने की जरुरत नही है ......लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए अगर किसी राज्य ने संजीवनी बनकर काम किया है तो वो है उत्तर प्रदेश ,ये वही प्रदेश से जिसके बारे में कहा जाता था कि कांग्रेस अब यहां पर दफन होने के कगार की तरफ बढ रही है .......लेकिन लोकसभा चुनाव में जिस तरह से उसने इक्कीस सींटे जीतकर इस प्रदेश में परचम लहराया है वो इस बात के संकेत है कि आने वाले चुनावों में वो एक बार फिर से वो इस प्रदेश को मुख्यमंत्री देने की भूमिका में होगी .......
किसी को कुछ नही पता होता है कि जिंदगी का आने वाला पल क्या लेकर आने वाला है ,इसके बावजूद इंसान हमेशा इस बात की हेकडी दिखाता रहता है कि वो सब कुछ जानता है ,लेकिन ऐसा होता नही है , हर किसी को जिंदगी में अगर किसी चीज की खोज होती है तो वह है खुशी , एक ऐसा नाम जिसके पीछे हर कोई दौड रहा है ,ये जानकर भी इस खुशी को पाने के लिए गम कहीं ज्यादा मिलते है ,अगर वो मिलती भई है तो इतनी सारी बाधाए आ जाती है कि उस तक पहुंचते पहुंचते इंसान काफी थक चुका होता है कभी कभी ऐसा भी होता है कि जिस खुशी को पाने के लिए हम पूरी जिंदगी लगा देते है जब वो हमारी जद में होती है तो हमारे हाथों की नसें इतनी कमजोर हो चुकी होती है कि उस खुशी को थामने के लिए वो आगे नही बढ पाते है , एक ऐसा ही दिन था छब्बीस अप्रैल का जब मैं रात को अपने आफिस से काम निपटाकर आखों में कई सपने लिए अपने घर की तरफ बढा जा रहा था कोई चिंता नही थी और न ही दूर दूर तक कोई ऐसी बात थी जिससे मेरी आखे और मेरा दिमाग कुछ नमी का अहसास कर पाता, दूसरे दिन के लिए कई प्लानिंग और भविष्य के लिए कई ख्वाब आखों में लिए मैं अपनी बाइक से बेपरवार आगे बढता चला जा रहा था कि अचानक मेरे फोन की घंटी बजी और मुझे सूचना मिली की मेरी पिता जी अब जिंदगी के उस छोर पर जहां से इस संसार का रिश्ता खत्म हो जाता है ,ये कैसे हो सकता है अभी मैने कल ही तो बात की थी सब कुछ ठीक था फिर ऐसे कैसे हो सकता है लेकिन सत्य यही था कि जो बात मेरे से कही गई थी वही सच था शायद ये मैने नही सोचा था लेकिन ऐसा हो चुका था ,सब कुछ बदल गया था कल की प्लानिंग ,भविष्य के सपने,अब अगर कुछ था तो ये अब नई परिस्थित से कैसे निपटा जाए ,दिमाग ने जो कुछ सोचा था वो सबकुछ बदल चुका था और दिमाग के पन्ने पर कुछ और ही लिखा जा रहा था ,इस के साथ ये भी स्पष्ट हो चुका था कि सिर्फ वही नही होता जो आदमी सोचता है बल्कि बहुत कुछ वो होता है जो आदमी नही सोचता , बहुत सी चीजें ऐसी होती जो होनी तो होती है लेकिन उनके बारे में ये पता नही होता है कि ये कब होनी है ,मतलब आदमी को कुछ पता नही कि कब क्या होना है इसके बाद भी वो कहता है कि उसे सब कुछ पता है
शनिवार, 25 अप्रैल 2009
अगर ये कहा जाय कि राजनीति की चौरस के पासें सिर्फ कौरवों के हाथ में है तो कोई गलत नही होगा ....लगभग पांच साल तक कांग्रेस की चौखट वाली सरकार की दहलीज पर बैठने वाले लालू अब ये कहने से बाज नही आ रहे है अगर मस्जिद गिराने के लिए सबसे ज्यादा कोई जिम्मेदार है तो वो है कांग्रेस ......शायद लालू को सत्ता के स्वाद के आगे ये याद नही रहा कि जिस थाली में वो खा रहे है ,उसमें भी छेद है हालांकि इस दौरान वो जिस छेद वाली थाली में जमकर सब कुछ छानते रहे जो कुछ वो छान सकते थे .......औऱ चुनाव के आते ही उन्हे अब याद आने लगा कि कांग्रेस क्या है .......शायद ऐसा उन्हे ऐसे ही नही लगा है बल्कि उन्हे पता है कि पिछली बार उन्होने कांग्रेस की सरकार में मलाई इसलिए छानने को मिली थी कि वो बिहार की चालीस सीटों में पच्चीस सीटों पर बाजी मारने में सफल रहे थे लेकिन इस बार ऐसा नही है ......क्योंकि नीतीश सरकार ने बिहार में उन उम्मीदों को काफी हद तक जिंदा कर दिया जिसके लिए बिहार लालू राज के दौरान तडपता रहा है ...बिहार में १७ फीसदी यादव १५ फीसदी मुस्लिम और १३ फीसदी दलित है जिसमें लालू को यादवों औऱ मुस्लिमों का वोट मिलता रहा है लेकिन न तो इस बार लालू का जादू चल रहा है औऱ न ही लालू की लालटेन की लाइट जगमगा रही है .......लालू को पता है कि कांग्रेस इस बार मुस्लिमों पर डोरे डालने में सफल हो रही है और इस बार लालू की २५ सीटे से १५ सीटे पर ही सिमट सकती है इसलिए लालू पूरी तरह कांग्रेस पर हल्ला बोले हुए है क्योंकि उनको पता है कि अगर उन्हे यादवों के वोट के साथ मुस्लिमों का वोट भी मिल जाता है तो काफी हद तक उनकी नैया पार लग जाएगी .......दूसरा कारण उन्होने मुलायम सिंह से गठजोड कर लिया है जो मुसलमानों के कम से कम उत्तर प्रदेश में तो हमदर्द माने जाते है .....इसलिए वो मुसलमानों को ये जताना चाहते है कि एक तो वो खुद मुसलमानों के हमदर्द है साथ ही वो ऐसी पार्टियों से गठबंधन करेगी जो मुसलमानों का हित ही अपना हित मानती है ये बात और है कि ये सियासी पार्टियों को अगर किसी के हित की याद आती है तो वो चुनाव का समय ही होता है ......हालांकि ये भी सही है ज्यादातर पार्टिया मुसलमानों को ही लुभाने में लगी है .......इसका सबसे कारण ये है आजादी के बाद तक मुसलमानों का वोट कांग्रेस का वोट माना जाता था लेकिन बाबरी मस्जिद के बाद ये वोट धीरे धीरे खिसकने लगा.....उत्तर प्रदेश में ये वोट जहां सपा के हिस्से में आता गया वही दूसरे राज्यों में दूसरी पार्टियों को इसका वोट मिलता रहा है.......
शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009
एक प्यार में हुई अंधी तो दूसरी ने दिखाई होशियारी लेकिन फिर बरबाद की एक औरत ने औऱत की जिंदगी ......मां बाप ने उसे स्कूल भेजा तो था कि पढलिखकर वह समाज के रीतिरिवाज औऱ कुछ दुनियादारी के बारे में जान जाऐगी .......लेकिन जिस उम्र का पडाव सबसे ज्यादा फिसलन वाला होता है उस पडाव ने उसे भी नही छोडा ......इसे जवानी का जोश कहें या फिर आकर्षण का असर या फिर कहें कि उसे भावनाओं का समंदर बहाया ले गया लेकिन ये सच था कि वो बह चुकी थी एक ऐसे बहाव में जहां से वापसी का रास्ता कोई नही होता है और जब उस बहाव के विपरीत कोई चलता भी है तो दामन में दाग लग ही चुका होता है ......हकीकत से दूर होकर लोग बहुत से सपने बुनते है उसने भी बुने और वही हुआ जो हकीकत को दरकिनार करने के बाद होता है ........उसने अपनी जिंदगी का सफर तय करने के लिए जिस हमसफर का ख्वाब देखा था वो उसे उस रुप में नही मिला जिस रुप में उसे मिलना चाहिए था ......क्योंकि वो किसी दूसरे के सफर का राही बन चुका था॥ किस्मत ने उसे भी किसी दूसरे घर की इज्जत बना दिया था लेकिन रास्ते अलग अलग होने के बावजूद दोनों एक ही मजिल का रास्ता तय करने के लिए तडप रहे थे औऱ फिर एक रास्ते पर मुलाकात हुई और फिर जो रास्ते अलग हो गए थे वो एक पंगडडी पर आकर मिल गए लेकिन ये दोनों को नही पता था कि वो पगडंडी कहा जाती है ....
गुरुवार, 23 अप्रैल 2009
मैं आज आपको एक ऐसी व्यक्ति के बारे में बता रहा हूं जिसकी शक्ल में मासूमियत समाई थी जिसके स्वभाव में सरलता इस कदर समाहित थी कि लोग सोचने पर मजबूर हो जाते थे कि वास्तव में जब हर चीज इतनी कठिनता से मिल रही है तब ऐसे में इसके स्वभाव में इतनी सरलता कैसे ......जिम्मेदारियों को इस कदर निभाने निपुण था कि किसी को उससे कोई शिकायत नही रहती थी ......लेकिन कहा जाता है जब इंसान का स्वार्थ चरम को पहुंचने लगता है तो वही इंसान जिसे लोग भगवान बनकर पूजते वो शैतान बन जाता है और ऐसा ही कुछ इस
इंसान के साथ हुआ .........अच्छा खासा परिवार अकेला वारिस ,घर वालों ने खूब धूमधाम से शादी की मां बाप सभी की चाहत थी कि जल्द ही उनके घऱ में कोई किलकारियों भरने वाला हो......घर के सभी सदस्य उस वक्त का इंतजार कर रहे थे .....कहा जाता है कि जब किसी खुशी की उम्मीद हो और उसका इंतजार किया जाय तो एक एक लम्हा सालो की तरह लगता है .....यहां पर भी वक्त तो गुजर रहा था लेकिन लेकिन जिस उम्मीद से ये उम्मीद लग रही थी कि वो हकीकत में बदलेगी अब वो धीरे धीरे धुंधली पडती जा रही थी और वो हकीकत से दूर होती जा रही थी......मां बाप चाहते थे कि जल्द ही उनके वंश चलाने वाला इस धरती पर अपने नन्हे पैर रखे लेकिन शायद यहां कुछ और ही होना था और वही हुआ ......साल गुजरा दूसरा साल गुजरा और फिर तीसरा साल शुरु हुआ ....लेकिन न तो किलकारी गूंजी और न ही वंश को चलकेकेवाले का घर की बूढी आखों को दीदार हुआ .......ये और बात है कि घर की बूढी आखों की अब तडप बढ गई थी .......हांलाकि इन तीन सालों में भले ही घर में औलाद का अवतार न हुआ हो लेकिन पति पत्नी के बीच का संबध इतना प्रगाड हो गया था कि अब इस संबध को औलाद की लालसा दरार पैदा करने में नाकामयाब लगती थी ........हालांकि मां बाप जरुर अब इस बात का सपना संजोने लगे थे कि बेटा दूसरी शादी कर ले और उन्हे उनके वंश को चलाने वाला दे दे ........और इसी के साथ गुजर गए दस साल ......लेकिन इन दस सालों में कहीं न वो बात जो एक स्त्री को मां बनाती है जिसके कारण एक महिला को ममता की मूर्ति कहा जाता है वो अमर के पत्नी में गहरा गई थी........अमर औऱ उसकी पत्नी ने हर वो कोशिश की जिससे उनकी सूनी गोद भर सकती थी लेकिन शायद वो कोशिशे भी उनसे रुठी हुई थी तभी तो ......जब वो डाक्टरों के पास गए तो डाक्टरों ने अमर को बताया कि उसकी पत्नी के बच्चे दानी की नस कटी हुई है और वो इस जिंदगी में तो मां नही बन सकती है ......शायद इस बात से अमर की पत्नी ने जरुर उसे इस बात के लिए तैयार कर दिया था कि वो अब मां नही बन सकती थी लेकिन अब भी उसके मन औलाद की चाहत तो थी ही अमर की बातों में भी कहीं न कही ये नजर आता था कि उसकी हसरत है कि उसे कोई पापा कहने वाला हो ........काफी सोचने समझने और ना नुकुर के बाद अमर दूसरी शादी के लिए तैयार हुआ ........औऱ इसके लिए चुनी गई एक ऐसी लडकी जिसकी उम्र थी सिर्फ बाइस साल जबकि अमर पैतालिस साल का था .......हर किसी जवान लडकी की हसरत औऱ सपना होता है कि उसकी डोली एक ऐसा शख्स ले जाए जो उसकी हम उम्र हो और जिसके दिल में अगर किसी महिला के प्रति प्यार हो तो वो हो सिर्फ वह लेकिन यहां तो पहले से ही विवाहित था लेकिन उस लडकी के सपने से कही ज्यादा उसकी गरीबी भारी थी जिसके बोझ तले उसके सपने दब चुके थे औऱ वो एक ऐसे व्यक्ति के साथ ब्याह दी गई थी जिसके म्यान में पहले से एक तलवार थी ..........दिल से नही सही देह ही सही लेकिन करना तो सब कुछ पडता है भले ही वो दिल से हो या फिर न ,शायद समाज में असलियत से कहीं ज्यादा औपचारिकताओं का महत्व है ......सब कुछ वही हुआ जो पहली ब्याह कर जाने वाली किसी लडकी के साथ होता है और चार महीने बाद ही सबकी आखे चमक से भर उठी थी क्योंकि जिस उम्मीद की तलाश की जा रही थी अब वो थोडी हकीकत बनने लगी थी मतलब अमर की दूसरी पत्नी मां बनने वाली थी और एक साल बाद घर में किलकारी गूंजने लगी थी ........दो साल बाद अमर दो बच्चों का बाप बन चुका था ........जहां एक तरफ किसी की जरुरत पूरी हो गई थी तो कोई अब जरुरत नही रह गई थी ....बच्चे पैदा करने के बाद भी ऐसा लगता था कि वो उनकी सौतेली मां है इसलिए नही कि वो ऐसा व्यवहार करती थी बल्कि इसलिए कि उसे बच्चों के साथ किसी तरह का व्यवहार करने ही नही दिया जाता था ........औऱ फिर एक दिन पता चला कि उसे टीवी हो गई है ........इलाज संभव था लेकिन न तो अमर ने उसे कहीं दिखाने की जरुरत समझी और न ही उसकी पत्नी ने ........घऱ की बूढी आखें इतनी कमजोर हो चुकी थी कि अब वो थोडा ही बहुत देख सकती थी आवाज इतनी धीमी हो चुकी थी कि जिसकों उन्होने बोलना सिखाया था अब उनके कान उनकी आवाज को नही सुन पाते थे ......और धीरे धीरे उसकी हालत खराब होती जा रही थी ........शायद वो उस घर के लिए एक इंसान या सदस्य नही थी बल्कि एक बच्चे देने वाली मशीन थी जिसने अपना काम पूरा कर दिया था और अब उसका कोई काम नही रह गया था और फिर एक दिन वो टीवी से तडप तडप कर मर गई ........लेकिन घर के किसी सदस्य को कोई फर्क नही पडा .........वो मर चुकी थी बच्चे देने वाली मशीन ........घर में किलकारियां भी गूंज रही थी औऱ उनकी आवाजें भी जो कभी इस बात की गुहार उस खुदा से लगाती थी कि वो उनके घर में कोई वारिस भेज दे.........लेकिन इन सबके बावजूद वो नही थी जिसके दूध की ताकत से वो किलकारियां गूंज रही थी .........यहां पर भी थी दो औरतें और एक पुरुष एक सवर गई जिंदगी तो दूसरी की जिंदगी ही नही रही ........
इंसान के साथ हुआ .........अच्छा खासा परिवार अकेला वारिस ,घर वालों ने खूब धूमधाम से शादी की मां बाप सभी की चाहत थी कि जल्द ही उनके घऱ में कोई किलकारियों भरने वाला हो......घर के सभी सदस्य उस वक्त का इंतजार कर रहे थे .....कहा जाता है कि जब किसी खुशी की उम्मीद हो और उसका इंतजार किया जाय तो एक एक लम्हा सालो की तरह लगता है .....यहां पर भी वक्त तो गुजर रहा था लेकिन लेकिन जिस उम्मीद से ये उम्मीद लग रही थी कि वो हकीकत में बदलेगी अब वो धीरे धीरे धुंधली पडती जा रही थी और वो हकीकत से दूर होती जा रही थी......मां बाप चाहते थे कि जल्द ही उनके वंश चलाने वाला इस धरती पर अपने नन्हे पैर रखे लेकिन शायद यहां कुछ और ही होना था और वही हुआ ......साल गुजरा दूसरा साल गुजरा और फिर तीसरा साल शुरु हुआ ....लेकिन न तो किलकारी गूंजी और न ही वंश को चलकेकेवाले का घर की बूढी आखों को दीदार हुआ .......ये और बात है कि घर की बूढी आखों की अब तडप बढ गई थी .......हांलाकि इन तीन सालों में भले ही घर में औलाद का अवतार न हुआ हो लेकिन पति पत्नी के बीच का संबध इतना प्रगाड हो गया था कि अब इस संबध को औलाद की लालसा दरार पैदा करने में नाकामयाब लगती थी ........हालांकि मां बाप जरुर अब इस बात का सपना संजोने लगे थे कि बेटा दूसरी शादी कर ले और उन्हे उनके वंश को चलाने वाला दे दे ........और इसी के साथ गुजर गए दस साल ......लेकिन इन दस सालों में कहीं न वो बात जो एक स्त्री को मां बनाती है जिसके कारण एक महिला को ममता की मूर्ति कहा जाता है वो अमर के पत्नी में गहरा गई थी........अमर औऱ उसकी पत्नी ने हर वो कोशिश की जिससे उनकी सूनी गोद भर सकती थी लेकिन शायद वो कोशिशे भी उनसे रुठी हुई थी तभी तो ......जब वो डाक्टरों के पास गए तो डाक्टरों ने अमर को बताया कि उसकी पत्नी के बच्चे दानी की नस कटी हुई है और वो इस जिंदगी में तो मां नही बन सकती है ......शायद इस बात से अमर की पत्नी ने जरुर उसे इस बात के लिए तैयार कर दिया था कि वो अब मां नही बन सकती थी लेकिन अब भी उसके मन औलाद की चाहत तो थी ही अमर की बातों में भी कहीं न कही ये नजर आता था कि उसकी हसरत है कि उसे कोई पापा कहने वाला हो ........काफी सोचने समझने और ना नुकुर के बाद अमर दूसरी शादी के लिए तैयार हुआ ........औऱ इसके लिए चुनी गई एक ऐसी लडकी जिसकी उम्र थी सिर्फ बाइस साल जबकि अमर पैतालिस साल का था .......हर किसी जवान लडकी की हसरत औऱ सपना होता है कि उसकी डोली एक ऐसा शख्स ले जाए जो उसकी हम उम्र हो और जिसके दिल में अगर किसी महिला के प्रति प्यार हो तो वो हो सिर्फ वह लेकिन यहां तो पहले से ही विवाहित था लेकिन उस लडकी के सपने से कही ज्यादा उसकी गरीबी भारी थी जिसके बोझ तले उसके सपने दब चुके थे औऱ वो एक ऐसे व्यक्ति के साथ ब्याह दी गई थी जिसके म्यान में पहले से एक तलवार थी ..........दिल से नही सही देह ही सही लेकिन करना तो सब कुछ पडता है भले ही वो दिल से हो या फिर न ,शायद समाज में असलियत से कहीं ज्यादा औपचारिकताओं का महत्व है ......सब कुछ वही हुआ जो पहली ब्याह कर जाने वाली किसी लडकी के साथ होता है और चार महीने बाद ही सबकी आखे चमक से भर उठी थी क्योंकि जिस उम्मीद की तलाश की जा रही थी अब वो थोडी हकीकत बनने लगी थी मतलब अमर की दूसरी पत्नी मां बनने वाली थी और एक साल बाद घर में किलकारी गूंजने लगी थी ........दो साल बाद अमर दो बच्चों का बाप बन चुका था ........जहां एक तरफ किसी की जरुरत पूरी हो गई थी तो कोई अब जरुरत नही रह गई थी ....बच्चे पैदा करने के बाद भी ऐसा लगता था कि वो उनकी सौतेली मां है इसलिए नही कि वो ऐसा व्यवहार करती थी बल्कि इसलिए कि उसे बच्चों के साथ किसी तरह का व्यवहार करने ही नही दिया जाता था ........औऱ फिर एक दिन पता चला कि उसे टीवी हो गई है ........इलाज संभव था लेकिन न तो अमर ने उसे कहीं दिखाने की जरुरत समझी और न ही उसकी पत्नी ने ........घऱ की बूढी आखें इतनी कमजोर हो चुकी थी कि अब वो थोडा ही बहुत देख सकती थी आवाज इतनी धीमी हो चुकी थी कि जिसकों उन्होने बोलना सिखाया था अब उनके कान उनकी आवाज को नही सुन पाते थे ......और धीरे धीरे उसकी हालत खराब होती जा रही थी ........शायद वो उस घर के लिए एक इंसान या सदस्य नही थी बल्कि एक बच्चे देने वाली मशीन थी जिसने अपना काम पूरा कर दिया था और अब उसका कोई काम नही रह गया था और फिर एक दिन वो टीवी से तडप तडप कर मर गई ........लेकिन घर के किसी सदस्य को कोई फर्क नही पडा .........वो मर चुकी थी बच्चे देने वाली मशीन ........घर में किलकारियां भी गूंज रही थी औऱ उनकी आवाजें भी जो कभी इस बात की गुहार उस खुदा से लगाती थी कि वो उनके घर में कोई वारिस भेज दे.........लेकिन इन सबके बावजूद वो नही थी जिसके दूध की ताकत से वो किलकारियां गूंज रही थी .........यहां पर भी थी दो औरतें और एक पुरुष एक सवर गई जिंदगी तो दूसरी की जिंदगी ही नही रही ........
बुधवार, 25 मार्च 2009
जब कभी कोई पुरुष किसी औरत को धोखा देता है ,तो ज्यादातर देखा गया है कि उस धोखे के पीछे भी कोई न कोई औरत ही देखी जाती है ,हांलाकि इसका एक पक्ष ये भी होता है कि इस मामले में अगर कोई ठगा जाता है तो वो भी औरत ही होती है,उदाहरण के लिए चांद और फिज़ा का मामला ,चादं का ज़ज्बाती प्यार चांद पर इस कदर सवार हुआ कि उसके लिए उसके बच्चे और उसकी पत्नी उस प्यार के सामने बौने हो गए और जो कुछ भी उनके लिए सर्वोपरि था वो थी फिज़ा ,एक तरफ एक औरत की दुनिया उजड रही थी तो दूसरी तरफ एक औरत को लग रहा था कि इस कारनामें से उसकी दुनिया संवर रही है ,और इन दोंनों के केंद्र मे था एक पुरुष.......जिसे खुद नही मालूम था कि वो क्या कर रहा है ,क्योंकि उस समय उसका न तो दिल काम कर रहा था और न ही दिमाग ,अगर उस समय उसका कुछ काम कर रहा था वो थी उसके अंदर की वो हवस जिसे वो शालीन तरीके से पूरा करना चाहता था और उसने ऐसा किया भी .........कुछ लोगों की ये दलील हो सकती थी कि वो उपमुख्यमंत्री के पद पर थे और अगर वो ऐसा चाहते तो बडे आराम से कर सकते थे।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)